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आमिर खान, शाहरुख खान, करण जौहर और शिल्पा शेट्टी, ये उन सितारों के नाम है जिनके बारे में दक्षिण भारतीय फिल्म ‘यशोदा’ के हिंदी संस्करण में किराए की कोख (सरोगेसी) के जरिये अभिभावक बनने पर टिप्पणी की गई है। किराए की कोख के जरिये मां बनने का पूरा एक कारोबार भारत के पश्चिमी राज्यों में पनपता रहा है। मुंबई के मलाड क्षेत्र में ही गांव देहात से आने वाली ऐसी तमाम महिलाओं का हाल के बरसों तक तांता लगा रहता रहा है। फिल्म ‘यशोदा’ की कहानी ऐसी महिलाओं को ही केंद्र में रखकर लिखी गई है जिन्हें आर्थिक विपन्नता के कारण अपनी कोख अमीर लोगों को किराए पर देने होती है और इसके बदले उन्हें लाखों रुपये मिलते हैं। लेकिन, ये कहानी सिर्फ सरोगेसी के कारोबार की कहानी नहीं है, ये कहानी उसके कहीं आगे तक जाती है। फिल्म में एक संवाद है जो शायद महिला सशक्तिकरण की पैरवी करने वालों को अच्छा न लगे लेकिन ये बहुत सामयिक भी है। फिल्म की मुख्य महिला किरदारों में से एक कहती हैं, ‘राजा बनने के लिए युद्ध जीतने होते हैं, लेकिन रानी बनने के लिए सिर्फ एक राजा को जीतना होता है!’
महिला सशक्तिकरण के दो रूप
फिल्म ‘यशोदा’ दो ऐसी महिलाओं की कहानी है जिनके लिए स्त्री सशक्तिकरण के मायने दो अलग अलग विचारधाराओं से निकलते हैं। सौंदर्य प्रतियोगिता में अतिथि बनकर आए मंत्री के सामने देवी देवताओं के चित्रों के सिर्फ सुंदर ही होने के तर्क के हिसाब से सौंदर्य प्रतियोगिताओं और सौंदर्य उत्पादों की तरफ पलड़ा झुकाने वाली मेडिकल की एक छात्रा अपने पिता से भी पांच साल बड़े उसी मंत्री से इसलिए शादी करने को तैयार हो जाती है क्योंकि उसके पास अथाह संपत्ति है। दूसरी तरफ यशोदा है। इस नाम को हर कदम पर जीने की कोशिश करती दिखने वाली गरीब परिवार की एक युवती। बताया जाता है कि वह अपनी छोटी बहन के इलाज के लिए अपनी कोख किराए पर देने को तैयार है। जिस कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में वह है, वह देखने में किसी फाइव स्टार होटल जैसा लगता है। खिड़कियों से दिखती हरियाली, रेलिंग पर बैठा कबूतर सब मनभावन है। और, फिर यशोदा कबूतर पकड़ने की कोशिश करती है तो पता चलता है कि वह तो सिर्फ छलावा है। बात की तह तक जाने की कोशिश में यशोदा हर उस छलावे का खुलासा करती चलती है जिसे दुनिया को धोखे में रखने के लिए रचा गया है।
मेडिकल साइंस के कारोबार का काला चेहरा
कृत्रिम गर्भाधान विज्ञान की पिछली सदी की बड़ी तरक्की रही है। इसका ही अगला विस्तार सरोगेसी के तौर पर हुआ। कानून की मानें तो कोई दंपती ही सरोगेसी के जरिये अभिभावक बन सकता है और वह भी तब जब पहले से उनके कोई संतान न हो। इसमें छूट के जो नियम हैं उसके मुताबिक स्वस्थ संतान के माता पिता सरोगेसी से बच्चा हासिल नहीं कर सकते। और, इसी क्रम में शायद फिल्म हिंदी सिनेमा के सितारों का जिक्र भी करती है। फिल्म ‘यशोदा’ का विषय बहुत ही संवेदनशील है। चिकित्सा अनुसंधानों के अनैतिक प्रयोग से धन कमाने वालों की तरफ भी ये फिल्म ध्यान ले जाती है और बताती है कि देश में बार बार एक निश्चित अवधि पर आने वाले विदेशी नागरिकों की तहकीकात करने भर से ही इस पूरे गोरखधंधे का भंडाफोड़ हो सकता है। फिल्में सिर्फ इतना ही कर सकती हैं। इस काम को रोकने के लिए जिम्मेदार एजेंसियां यहां के संकेत ले लें तो काफी कुछ हो सकता है। फिल्म सरोगेसी के बहाने चलने वाले उस कारोबार तक विषय को ले जाती है जहां मजबूर स्त्रियों के पेट में पल रहा गर्भ सिर्फ एक ‘असेट’ भर बनकर रह जाता है।
हरि और हरीश की पहली तेलुगू फिल्म
फिल्म ‘यशोदा’ के निर्देशक हरि और हरीश यानी हरि शंकर और हरीश नारायण का तमिल सिनेमा मे बड़ा नाम रहा है। उनकी तीन तमिल फिल्में ‘ओर्र इरावू’, ‘अंबुली’ और ‘आह’ ने सिनेमा का एक अलग ही अध्याय लिखा है। ‘यशोदा’ इन दोनों की पहली तेलुगू फिल्म है और सामंथा की ये पहली दक्षिण भारतीय फिल्म है जो मूल फिल्म की रिलीज के साथ ही हिंदी में भी डब होकर रिलीज हुई है। हरि और हरीश की अपने विषय पर पकड़ तारीफ के काबिल है। फिल्म शुरू में थोड़ा सुस्त रफ्तार से चलती है और नायिका का लक्ष्य स्पष्ट न होने के कारण फिल्म इधर उधर भटकती दिखती है लेकिन एक बार ये खुलासा होने के बाद कि सरोगेसी के कारोबार के पीछे का असल कारोबार कुछ और है, दर्शकों की दिलचस्पी कहानी में बढ़ने लगती है। फिल्म के अंत में हरि और हरीश अपनी कहानी के उन सूत्रों का भी खुलासा करते हैं जहां से उन्हें ये सिहरा देने वाला विषय मिला। फिल्म की अवधि कम रखकर हरि और हरीश इस फिल्म को और प्रभावी बना सकते थे, लेकिन अपने मौजूदा स्वरूप में भी फिल्म एक बार देखी जा सकने लायक फिल्म है।
अभिनय की सुंदर पाठशाला, सामंथा
सामंथा अब अपने नाम के आगे पीछे कुछ नहीं लगाती है। उनका नाम ही महिला सशक्तिकरण की असल पहचान है। न सरनेम का भय और न वैवाहिक स्थिति की चिंता। फिल्म ‘यशोदा’ में उनका किरदार एक मजबूर, बेसहारा लड़की के किरदार से शुरू होकर किसी और के वीर्य से हुए गर्भाधान के बाद पेट में पल रहे बच्चे से हुए भावनात्मक जुड़ाव तक आता है। अस्पताल के डॉक्टर से उनका नैन मटक्का भी चलता है। साथी माताओं से शुरुआती नोकझोंक के बाद बना सामंजस्य और अस्पताल की मालकिन से शुरुआती सामंजस्य के बाद होने वाली नोकझोंक, इन सारी अलग अलग परिस्थितियों में सामंथा ने दर्शनीय अभिनय किया है। फिल्म के क्लाइमेक्स में उनका किरदार एकदम से बदलता है। उनके अतीत का खुलासा होता है और इसके बाद जो एक्शन दृश्य आते हैं, वे सामंथा को सिनेमा का असली धाकड़ भी बनाते हैं। सामंथा का हिंदी सिनेमा के दर्शकों से वेब सीरीज ‘द फैमिली मैन’ और सुपरहिट फिल्म ‘पुष्पा द राइज’ के गाने के बाद ये तीसरा संवाद है और कदम दर कदम वह उत्तर भारतीयों पर अपना जादू चलाने में कामयाब होती जा रही हैं।
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